Friday, September 17, 2010

किस बात का खुमार मुझ में है.








किस बात का खुमार मुझ में है.
        क्यों गुस्सा बेशुमार  मुझ में है.
मिला नहीं अभी तक कुछ, और
        अभी से उनसे बिछड़ने के दर्द का गुमार, मुझ में है
सपने, हासिल या अपनाना तो दूर कि बात है.
        उनसे तकरार मुझ में है.
गम से राफ्ता रहा, मेरा हरदम
         और खुशियों के लिए बेकरार दिल, मुझ में है,
खता हुई है कही बार मुझसे भी,
         पर उन गलती को स्वीकार करने वाला ईमान, मुझ में है.
दिल बहुत दुखी था, इसलिए लिख रहा हूँ.
         पर दुःख को कविता लिख कर भुलाने का, ब्यवहार मुझ में है.
किस बात का खुमार मुझ में है.
     क्यों गुस्सा बेसुमार मुझ में है

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Tuesday, September 14, 2010

खेल खेल खेल.

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खेल खेल खेल.
    कर दिया कॉमन वैल्थ गेम फेल.
अब तो सब इसका ठीकरा,
      एक दूसरे में फोड़ रहे है.
और इस खेल को भारत लाने वाले मणिसंकर,
       अब मुह अपना मोड़ रहे है.
कहते है, इस खेल का बेडा गर्क है.
       इनमे और हमारे दुश्मनों में क्या फर्क है?
असुविधयो के लिए खेल का बहाना लगाते है.
        तीन सालो तक कुछ ना कर पाए, इस राज को छुपाते है.
गुलाम नबी ने तो, डेंगू का कारण देकर, इस खेल का नाम  बर्बाद कर दिया.
        कलमाड़ी ने खुद  कि शाम को  आबाद कर दिया.
वाह इस खेल का बजट, हमारी शिक्षा के बराबर करने वाले ये लोग.
         जिन्होंने भ्रिस्ठाचार के दैत्य को लगाया खुद भोग.
और अब सारी मलाई खाकर, ख़राब दूध का पनीर  बना रहे है.
        हमारे पहले से   गरीब देश को, और ज्यादा फकीर बना रहे है.
कुछ समझ नहीं आता है, चुप रहे या कुछ करें.
        या फिर इस खेल के नाम पर बढ़ी महंगाई और टेक्स को भरें.