दिल करता है, भाग जांऊ. पर कहाँ?
मन कहता है, छिप जांऊ, पर कहाँ?
मेने ही तो,इस दुनिया को ऐंसा बनाया है.
झूठ को मेने रिश्वत के चादर के नीचे छुपाया है अन्नाय के खिलाफ, कुछ करने वाले को, गाँधी के तीन बंदरो वाला उपदेश समझाया है.
चारो और साम्प्रदायिकता का जहर फैलाया है.
अब खुद बैचैन हूँ, तो भागने कि बात करता हूँ.
अपने बनाये माहोल से छिप जाने कि बात कहता हूँ.
अपने को ही कोसने वाला, में लगभग खत्म तेरा ईमान हूँ.
पहली बार मेहनत से कमाया हुआ. तेरे घर का सामान हूँ.
घिन आती है, मुझे खुद पर कि, क्या बन गया में इंसान हूँ.
7 comments:
जीवन की दुविधा को बड़े प्रवाहपूर्ण प्रवेग में उठाया है। बड़ी सुन्दर कविता।
बहुत बढ़िया रचना.
sundar racha hai.......
बढ़िया रचना.
यों पलायन से काम नहीं चलेगा . इंसान को इंसानियत सिखानी पड़ेगी.
good . magar bahut din bad likhi
jaldi likha karo bhai
सत्य वचन, जोशी जी!
पर किसी पढ़े-लिखे ने ये भी कहा है....
नर हो ना निराश करो मन को!
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