Tuesday, June 8, 2010

जाने क्या ढूंढता हूँ


हर मुकाम में ,कुछ नया कर गुजरने की सोचता हूँ?
कुछ नहीं आँखों में, फिर भी जाने क्या पोछता हूँ.
पहले सुबह, शंख  की ध्वनि की गूंज से, खुलती थी.
माँ के हाथो की चाय की खुसुबू
   और दादी के रामायण के श्लोको की ध्वनि, हवा में घुलती थी.
बगल में रहने वाले पडोसी, सुबह सुबह हाल चाल पूछने आते थे.
गर है कोई समस्या तो,सारे आपस में मिल कर उसे, हल कर जाते थे.
भटके हुए मुसाफिर, गर रास्ता पूछे तो,
                       उसे गुड पानी पिला कर, घर तक छोड़ आते थे.
बच्चे स्कूल से आने के बाद, खेतो में खूब उधम मचाते थे.
काम उस समय भी करते थे सभी. पर आज से ब्यस्त नहीं.
गलतिया तब भी होती थी लोगो से, पर आज से भ्रष्ठ नहीं.
आज शंख की नहीं,अलार्म की घडी उठाती है.
माँ की चाय की खुशबु नहीं, वाहनों की जहरीली गैंस, फिजा में घुल जाती है.
अब पडोसी, पडोसी को नहीं जानता.
गर नहीं तुम्हारे पास धन तो, अपना अपने को नहीं मानता,
बच्चो के लिए अब खेत नहीं बचे, जो वो खेल सके.
पता नहीं वो दिन कब आएगा जब हम खुद के अन्दर देख सके.
ये ख्वाब ना जाने किती बार में, संभालता और तोड़ता हूँ.
हर मुकाम में ,कुछ नया कर गुजरने की सोचता हूँ?

कुछ नहीं आँखों में, फिर भी जाने क्या पोछता हूँ.

3 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

मार्मिक चित्रण है ।

RAJWANT RAJ said...

bhut hi khubsurt our marmik prstuti lgi . aankho se jo htasha tpk rhi hai use pochh daliye .
subh hogi jrur hogi .

Apanatva said...

पता नहीं वो दिन कब आएगा जब हम खुद के अन्दर देख सके.

ati sunder......