Thursday, June 10, 2010

भगवान को लालच ओर डर का एक बिंदु बना दिया है

आपने सत्यनारायण भगवान की कथा में, लीलावती की कहानी सुनी होगी, की उसका पति,सत्यनारायण भगवान की कथा के लिए कहता रहता है, और उसके सभी काम सफल होते रहते है.अंत में जब वो कथा नहीं करता तो,
उसको जेल में डाल दिया जाता है. तब उसकी पत्नी और बेटी कथा करती है, और सब कुछ सही हो जाता है. मेरा एक सवाल है अगर हमारे यहाँ इस कथा में, कलावती है. तो जब कलवती ने जो कथा कराई थी, तो उसकी कथा में कौन था?
क्या भगवान् की, डर या लालच देकर ही, पूजा करने के लिए प्रेरित किया जाता है.
तीसरा सवाल भगवान की अगर पूजा ना की जाये या भगवान को ना मना जाये, तो उसका भगवान गलत क्यों करेंगे? क्योंकि वो तो भगवान है हिर्न्याकस्य्प देत्या नहीं जो उनकी पूजा नहीं करेगा उसका गलत करेंगे.
असल में भगवान को लालच ओर डर का एक बिंदु बना दिया है कुछ स्वार्थी लोगो ने, वे ये तो कहते हैं की, १२ साल बाद कुम्भ आया है,जरुर स्नान करिएँ, लेकिन ये नहीं कहते है की, सास्त्रो में लिखा है " मन चंगा तो कठोती में गंगा" अगर कोई नहीं जा सके तो कोई बात नहीं.
वे ये तो कह देते हैं की, चार धाम यात्रा करो, लेकिन ये नहीं कहते की हमारे हर्दिया में भगववान है, उसकी आराधना से भी, वही सुख मिलेगा.
वे ये तो कह देते है, मंगल वार को जीव हत्या करके (मांस) ना खावों.लेकिन ये नहीं कहते की रोज, जो इंसान इंसानियत की हत्या कर रहा है वो ना करे.
वे ये तो कहते हैं की, काम सफल करना है तो इस वार(सोम,मंगल,सनि) के इतने उपवास करो, लेकिन ये नहीं कहते की उस दिन किसी भूखे का पेट भर दे.
वे ये तो कहते है की उस भगवान् के इतनी बार माला जपो, लेकिन ये नहीं कहते की एक बार अपने माँ- बाप को याद कर लो.
पता नहीं ओर क्या क्या आडम्बर इन स्वार्थी लोगो ने हमें अपने स्वार्थ हित करने के लिए कहते है, ओर हम फंस जाते है उनके मकड़ जाल में.
भगवान डर या लालच नहीं है ओर ना ही ये कोई ट्रोफी है? जो दूर पैदल चलकर, मंदिर जाकर या उपवास कर के मिलेंगे, ये एक भाव है जो हमें खुद पहचान के ही मिलते है. जैंसा गौतम बुध ने किया.
कृपा कर के आपसे अनुरोध है की, भगवान को माने, पर स्वार्थी लोगों के बनाये हुए आडम्बर को नहीं, और हाँ में कोई उप्देसक नहीं हूँ. में भी आस्तिक हूँ , लेकिन आँख बंद कर के सब कुछ नहीं मानता और ना मनवाता हूँ.

10 comments:

vivek said...

जोशी जी आपके इस ब्लॉग में एक सच्चाई है , आपके ब्लॉग प्रेरणाजनक होते हैं .

लेकिन एक बात मैं कहना चाहूँगा की, यही सब जो हमें कहानियां सुनाई गई हैं यही हमारे संस्कार हैं

कई लोग हैं जो अपने अंदर ही भगवान को देखते हैं ,कोई मंदिर नहीं जाता ,ना ही कोई मंगलवार या शनिवार देखता है.........लेकिन कभी आपने ये भी नहीं सुना होगा की हमारे देश की तरह दुशरे देशो में लोग तीर्थ यात्रा नहीं करते हैं , मैं ये नहीं कहना चाहता की और देशो में संस्कार नहीं हैं ,मैं ये कहना चाहता हूँ की हमारे देश को इसी कारण सारे विश्व में जाना जाता है ....

आपका कहना ठीक है की वो लोग जो हमें मंगलवार शनिवार सुनाते हैं ,वे और कुछ नहीं कहते

लेकिन अगर ये सब भी उन्होंने नहीं सुनाया होता और ये रीत नहीं चलती तो आज चार धमो की यात्रा लोग कई मीलो पैदल चलकर तै नहीं करते ....

पैदल चलकर भगवान की ट्रोफी नहीं मिलती ,लेकिन मन को एक शांति मिलती है जो इस भाग दौड़ वाली दुनिया जिसमे दो कदम चलना हो तो गाड़ी चाहिए, से कुछ राहत है




लेकिन मैं आपकी बात से भी सहमत हूँ हमें जितना सुनने को मिले उसी में अपने आपको नहीं बंधना चाहिए

ये अच्छा है....

anoop joshi said...

टिपिनी हेतु धन्यबाद विवेक जी पर लगता है मेरी पोस्ट आपकी समझ नहीं आई. मेने मंदिर जाने,उपवास करने, गंगा नहाने, पैदल तीर्थ यात्रा करने को मना नहीं किया, बल्कि आडम्बरो से बचने को कहा है. फिर से धन्यबाद. आशा है आप समझ गए होंगे.

Anonymous said...

joshi g bahut galat kaha.
mandir me bhgwaan hote hai, tirth or ganga nahane se fyada hota hai.
kyon khilaye bhukhe ko, wo khud kamaye or khaye.agar ham unhe khana khala denge to mahnat kaun karega.
dhram ke anusaar hame sab kuch sikhya jata hai jise aap kah rahe hai.
joshi g aapke purane blog. "agar milta to lete nahi" wali post bahut achi lagi thi.

प्रवीण पाण्डेय said...

आपकी बात में सच है ।

सूफ़ी आशीष/ ਸੂਫ਼ੀ ਆਸ਼ੀਸ਼ said...

Maikya Baujee,
Tussi kehnde han kharee-kharee!
Vadhiya! Assi tuhaade naal han!

Harshvardhan said...

bahut achcha hai./

Apanatva said...

sahee disha me soch hai.......
ine brat upvaso kee bhool bhulaiya me manavta insaan khota ja raha hai...........

hem pandey said...

मामला श्रद्धा का है. जो न करे उसे कोई बाध्य नहीं कर सकता. सत्यनारायण की कथा केवल एक सीख देती है - कोई भी वादा करो तो उसे निभाओ जरूर. चार धाम की यात्रा का प्रावधान आदि शंकराचार्य ने देश की एकता के लिए किया था इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता. आज सैकड़ों वर्ष बाद भी कोई व्यक्ति ऐसा उत्कृष्ट काम नहीं कर पाया. आप जो कहना चाह रहे हैं वह शायद यह है कि धार्मिक बनने के लिए आडम्बर की जरूरत नहीं है. धार्मिक की यह परिभाषा भी देखिये.

आचार्य उदय said...

प्रभावशाली लेखन।

(आईये एक आध्यात्मिक लेख पढें .... मैं कौन हूं।)

संजय भास्‍कर said...

जोशी जी आपके इस ब्लॉग में एक सच्चाई है , आपके ब्लॉग प्रेरणाजनक होते हैं .